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कविता

तुम्हारी मनमर्जियाँ मेरी अमानत हैं...

प्रतिभा कटियार


मेरे पल्लू के कोने में
नहीं बँधी है कोई नसीहत
तुझे देने को मेरी लाडो
विरासत में मिली
संस्कारों और रीति रिवाजों वाली भारी भरकम ओढ़नी को
मैंने संदूक में सँभालकर नहीं रखा था
उसे तार-तार करके फेंक आई थी
बहुत दूर
कि उसके बोझ से मुझे ही नहीं
समूची धरती को मुक्ति चाहिए थी
कोई हिदायत नहीं मेरी मुट्ठियों में
तुम्हारे लिए
न नियम कोई, न ताकीद
कि अपने नियम तुम खुद बनाओ
कोई रास्ता नहीं बताऊँगी मैं तुम्हें
कि इस पर चलो और इस पर न चलो
अपना सही और गलत खुद तुम तय करो
मजबूती से करो प्रतिवाद
अपने से बड़ों से भी
कि उम्र में बड़ा होना
नहीं होता बड़ा होना
तुम्हारे गिरने पर सँभाल लूँगी दौड़ के
ऐसा कोई वादा नहीं है मेरे पास
तुम्हारे लिए
लपक कर तुम्हें चूम लेने की
अपने सीने में समेट लेने की
पलकों में छुपा लेने की हसरत को
भींच लिया है मैंने अपने ही भीतर
सहना, हरगिज नहीं
जरा भी नहीं
जिंदगी सहने का नहीं
जीने का नाम है
घूरकर देखना इस तरह कि
हिमाकत करने वाले
सोचने से भी बाज आए हिमाकतों के बारे में
शर्म, संकोच, विनम्रता, मधुरता ये शब्द हैं मात्र
इन्हें सिर्फ विवेक से हाँकना मेरे लाडो
कि विनम्रता कोई संजीवनी बूटी भी नहीं
मत फिक्र करना किसी के कहने-सुनने की
कि तुम्हारी मनमर्जियाँ मेरी अमानत हैं
जानती हूँ दिल तोड़ना हम स्त्रियों को नहीं आता
पर अपना दिल टूटने से बचाना भी होगा
तुम्हारी माँ के पास कुछ भी नहीं
तुम्हें देने को
सिवाय इसके कि
वो तुम्हारे कदमों की ताकत है
तुम्हारे पंखों की जुंबिश 
तुम्हारे खुद पर किए गए यकीन का ऐतमाद
तुम्हारे प्रतिवाद का स्वर की खनक
कभी कुछ भी गलत न सहने की हिम्मत
नाइनसाफियों के मुँह पर तुम्हारा जड़ा हुआ तमाचा
तुम्हारी तमाम आवारगी में तुम्हारा साया
खिलखिलाहटों पे नजर का काला टीका...
 


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